मेरे वतन को सियासत की ज़रुरत थी , उसे सियासत में फ़रेब की ज़रुरत है, ऐसा मान बैठे है मेरी सरकार चलाने वाले नेता। आज़ादी हमें मिली थी १९४७ में पर उसे वो अपनी ख्वाहिशों की आज़ादी मान बैठे। उन्होंने वायदा किया कि तुम सुकून से बैठो, काम हम कर लेंगे, वतन तो हमारा भी है। हम भूले बिसरे उनकी मीठी खीर जैसी बातों में आ गए। चलता रहा सफर, बदलते रहे नेता, बदलती रही विचारधारा, बढ़ते गए आज़ादी के साल। पहले रेडियो पर और अखबारों में, फिर दूरदर्शन और फ़ोन पर, वायदे आते गए, हमे बेइंतेहा खूबसूरती से बहलाते गए। जय जवान, जय किसान का नारा दिया सबने, फिर गहरी नींद सो गए सुकून की चादर ओढ़ के। किसान आज भी परेशां, जवान आज भी हैरान, कि हुआ तो हुआ क्या समय तो पर लगा के उड़ गया पर हमारे साथ क्या हुआ। लोगो ने सरकारें बदली उम्मीद में की ये मेरा उद्धार करेगा, वो मेरा उद्धार करेगा। पर नादाँ जनता का न पहले वाला अपना हुआ न अब वाला है। वो आज भी किसान के मरने पर आँसू बहाता है, वो कल भी इसी बात पर बिलख बिलख के रोयेगा। फिर शायद किसी वातानुकूलित कमरे में जाकर आलू के चिप्स खायेगा। ५ साल के लिए एक बार फिर लोकतंत्र का उत्सव मनाया जायेगा, आम आदमी मदहोश हो जायेगा। वो ख़ुशी मनाएगा, फिर भूल जायेगा। वो असहज प्रश्न नहीं पूछेगा, हिसाब नहीं मांगेगा अपने खून-पसीने का। वो फिर चुपचाप कुढ़ेगा कोने में। एक बार फिर वो हार जायेगा।
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