क्या होता है जब आप प्रेमचंद को दोबारा कई सालों बाद पढ़ते है? पूरी मानसरोवर या सिर्फ़ कहानियाँ या गोदान या कोई और उपन्यास। आज से करीबन १०० साल पहले लिखी हुई किताबों से उम्मीदें होती है कि वह उस ज़माने की झलक दिखाई दे। लेकिन प्रेमचंद उससे कुछ अधिक ही दिखाते है। उन्होंने कई ऐसी कहानियाँ लिखी है जिनसे समाज का ऐसा चित्र सामने आता है जो कि किसी इतिहास की किताब में भी नहीं मिलेगा। आखिर हमें कैसे पता चलता कि मुलिया के साथ वही होगा तो पन्ना के साथ हुआ, लेकिन पिसा रघु। कैसे पता चलता के खेती पसीने की वास्तु है और रघु मारे अपने कमज़ोर शरीर के ऐसा कर नहीं पा रहा था। क्या किसी को पता चलता के आखिर ज़ुबैदा ने सलीम के साथ वाली ऐशो-आराम की ज़िन्दगी छोड़ शरीर के बाज़ार का रुख क्यों किया ? खैर, ये तो अभी भी हम नहीं जानते के नमक कितना कीमती है। आज भी खाने का स्वाद बढ़ाने वाले नमक के कारीगरों का क्या हश्र है।
प्रेमचंद ने भारत में पाए जाने वाले सभी सिरों को पकड़ा है। उन्हें जितना लगा, जहाँ जैसा लगा लिखते चले गए। कदापि वह इस बात से अनभिज्ञ रहे होंगे के जो उन्हें किस्से कहानियां लग रही है वो दरअसल सच्चा इतिहास है जो स्कूलों-कॉलेजो की किताबों में जगह नहीं बना पाया। समाज का इतना सूक्ष्म, यथावत वर्णन आखिर इतनी आसानी से किताबों की सीमित भाषा थोड़े ही कर पायेंगी।
प्रेमचंद को शायद उम्मीद थी किसी तरह की मदद की। उनके शब्द इतने ज़ोर ज़ोर से चिल्लाते रहे, पर आखिर क्यों? वो सबके बारे में कहते रहे लेकिन उनका मकसद समझ नहीं आया। क्या उन्हें लगा था कि उनकी कहानियाँ पढ़ कर कोई हामिद की दादी के घर सरकारी योजनाओं का पुलिंदा फेंक आएगा या उन्हें लगा कि कोई बुधिया के कफ़न का मोल समझ लेगा। प्रेमचंद आज होते तो क्या उनकी कलम से स्याही की जगह खून नहीं निकलने लगता। वो गरीब आदमी था, दीन- दुनिया की आज जितनी खबरें हमारे पास है उसके पास नहीं थी।
शुक्र है।
क्या प्रेमचंद एक प्रवासी कामगार होते? क्योंकि हमारा लेखक तो उस ज़माने में भी गरीब था। शायद काम की कमी होने की वजह से वो भी अपने गाँव पहुँचने की कोशिश में दो रोटी अपनी छोटी सी कपड़ो की पोटली में होली में लिए गए नए प्लास्टिक के खिलौनों के साथ बाँधता। फिर अपने साथियों के साथ कड़कती धूप में मिलों का सफ़र करने निकल पड़ता ये सोच के कि गाँव में रोटी-नून तो मिल ही जायेगा। शायद उसके लेखक और कुछ नहीं लिख पाता। सरकारी रिकार्ड्स में एक लाइन में अनाम दर्ज हो के रह जाता। प्लास्टिक के खिलौने रास्ते के किनारे फेंक दिए जाते क्योंकि अब उनका क्या लाभ।
सोचो तो ज़रा कि अगर आज किसी राजनितिक दल ने अगर प्रेमचंद को अपना कैंडिडेट बनाया होता तो मंच पर झूठ बोलते बोलते क्या उनका गला न सूखता. ज़रूर सूखता, हो सकता है पानी पानी चिल्लाते हुए वो किसी पास के घर में घुस जाते। लेकिन शायद उन्हें वहाँ पानी नहीं मिलता क्योंकि सर्कार ने पिछले पाँच सालों में इस गरीब बस्ती से सिर्फ मैला ढोने वाले उठाये है। शायद फिर भी कोई दरियादिल अम्मा अपने पानी वाले राशन से प्रेमचंद को एक गिलास पानी दे देती, लेकिन फिर बाहर निकलते ही शायद कोई उनका खून कर देता. क्यों? क्योंकि चुनाव आ रहे है, पार्टियों को मुद्दा चाहिए। हमारा सच्चा लेखक प्रेमचंद उनके किस काम का, पर का खबरों में वो हिन्दू बन जायेगा जिसे किसी मुस्लिम ने मारा होगा। फैक्ट-चेकिंग नहीं होगी। नहीं पता चलेगा के जिसने मारा उसके बैंक अकाउंट में उसी राजनितिक पार्टी के अकाउंट से काफ़ी रूपया गया है। उसका धर्म हिन्दू ही था। फिर कई बार कई धार्मिक व्यक्तियों के अकाउंट में लेनदेन होगा।
प्रेमचंद का प्रेत पहले की तरह अब भी किसी गली में अदॄश्य खड़ा चिल्लायेगा, लेकिन इतने शोर शराबें में कौन उसकी सुनेगा। फिर एक बच्चा अपनी माँ को ढूंढने घर से निकलेगा, प्रेमचंद उसे एकटक देखेंगे। वो भी प्रेमचंद को अपनी बड़ी बड़ी आँखों से देख तोतली आवाज़ में पूछेगा- "बताओ तो हमारी अम्मा कहाँ है।" प्रेमचंद का प्रेत खून से लथपथ हो जायेगा जब पीछे से आती गाड़ी उस बच्चे को अनदेखा कर सामने कुछ और लेन-देन का काम करने जा रही होगी।
पर प्रेमचंद ढीठ है। वो कुछ करना बंद नहीं करेगा। उसका प्रेत अब भी चिल्लाता है, कहता है लाशों को उनके घरवालों के पास पहुँचा आओ, कोई पुलिस को बुलाओ, कोई अम्मा को बचाओ। कान फट रहे है उस लेखक के चिल्लाने से।
प्रेमचंद ने भारत में पाए जाने वाले सभी सिरों को पकड़ा है। उन्हें जितना लगा, जहाँ जैसा लगा लिखते चले गए। कदापि वह इस बात से अनभिज्ञ रहे होंगे के जो उन्हें किस्से कहानियां लग रही है वो दरअसल सच्चा इतिहास है जो स्कूलों-कॉलेजो की किताबों में जगह नहीं बना पाया। समाज का इतना सूक्ष्म, यथावत वर्णन आखिर इतनी आसानी से किताबों की सीमित भाषा थोड़े ही कर पायेंगी।
प्रेमचंद को शायद उम्मीद थी किसी तरह की मदद की। उनके शब्द इतने ज़ोर ज़ोर से चिल्लाते रहे, पर आखिर क्यों? वो सबके बारे में कहते रहे लेकिन उनका मकसद समझ नहीं आया। क्या उन्हें लगा था कि उनकी कहानियाँ पढ़ कर कोई हामिद की दादी के घर सरकारी योजनाओं का पुलिंदा फेंक आएगा या उन्हें लगा कि कोई बुधिया के कफ़न का मोल समझ लेगा। प्रेमचंद आज होते तो क्या उनकी कलम से स्याही की जगह खून नहीं निकलने लगता। वो गरीब आदमी था, दीन- दुनिया की आज जितनी खबरें हमारे पास है उसके पास नहीं थी।
शुक्र है।
क्या प्रेमचंद एक प्रवासी कामगार होते? क्योंकि हमारा लेखक तो उस ज़माने में भी गरीब था। शायद काम की कमी होने की वजह से वो भी अपने गाँव पहुँचने की कोशिश में दो रोटी अपनी छोटी सी कपड़ो की पोटली में होली में लिए गए नए प्लास्टिक के खिलौनों के साथ बाँधता। फिर अपने साथियों के साथ कड़कती धूप में मिलों का सफ़र करने निकल पड़ता ये सोच के कि गाँव में रोटी-नून तो मिल ही जायेगा। शायद उसके लेखक और कुछ नहीं लिख पाता। सरकारी रिकार्ड्स में एक लाइन में अनाम दर्ज हो के रह जाता। प्लास्टिक के खिलौने रास्ते के किनारे फेंक दिए जाते क्योंकि अब उनका क्या लाभ।
सोचो तो ज़रा कि अगर आज किसी राजनितिक दल ने अगर प्रेमचंद को अपना कैंडिडेट बनाया होता तो मंच पर झूठ बोलते बोलते क्या उनका गला न सूखता. ज़रूर सूखता, हो सकता है पानी पानी चिल्लाते हुए वो किसी पास के घर में घुस जाते। लेकिन शायद उन्हें वहाँ पानी नहीं मिलता क्योंकि सर्कार ने पिछले पाँच सालों में इस गरीब बस्ती से सिर्फ मैला ढोने वाले उठाये है। शायद फिर भी कोई दरियादिल अम्मा अपने पानी वाले राशन से प्रेमचंद को एक गिलास पानी दे देती, लेकिन फिर बाहर निकलते ही शायद कोई उनका खून कर देता. क्यों? क्योंकि चुनाव आ रहे है, पार्टियों को मुद्दा चाहिए। हमारा सच्चा लेखक प्रेमचंद उनके किस काम का, पर का खबरों में वो हिन्दू बन जायेगा जिसे किसी मुस्लिम ने मारा होगा। फैक्ट-चेकिंग नहीं होगी। नहीं पता चलेगा के जिसने मारा उसके बैंक अकाउंट में उसी राजनितिक पार्टी के अकाउंट से काफ़ी रूपया गया है। उसका धर्म हिन्दू ही था। फिर कई बार कई धार्मिक व्यक्तियों के अकाउंट में लेनदेन होगा।
प्रेमचंद का प्रेत पहले की तरह अब भी किसी गली में अदॄश्य खड़ा चिल्लायेगा, लेकिन इतने शोर शराबें में कौन उसकी सुनेगा। फिर एक बच्चा अपनी माँ को ढूंढने घर से निकलेगा, प्रेमचंद उसे एकटक देखेंगे। वो भी प्रेमचंद को अपनी बड़ी बड़ी आँखों से देख तोतली आवाज़ में पूछेगा- "बताओ तो हमारी अम्मा कहाँ है।" प्रेमचंद का प्रेत खून से लथपथ हो जायेगा जब पीछे से आती गाड़ी उस बच्चे को अनदेखा कर सामने कुछ और लेन-देन का काम करने जा रही होगी।
पर प्रेमचंद ढीठ है। वो कुछ करना बंद नहीं करेगा। उसका प्रेत अब भी चिल्लाता है, कहता है लाशों को उनके घरवालों के पास पहुँचा आओ, कोई पुलिस को बुलाओ, कोई अम्मा को बचाओ। कान फट रहे है उस लेखक के चिल्लाने से।